गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

उत्तरप्रदेश में मूर्ति की राजनीत

लाख टके का नहीं दो हजार करोड़ रुपए का सवाल है कि क्या इससे ज्यादा शर्मनाक कुछ हो सकता है? उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती व्यक्तिपूजा के साथ-साथ स्वपूजा में कितना अधिक विश्वास रखती हैं, इसके प्रमाण विगत वर्षों में कई बार मिल चुके हैं। इस बार आत्मस्तुति का ताजा उदाहरण है अपनी और बसपा के संस्थापक कांशीराम की मूर्तियों सहित पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की कई मूर्तियां लगवाने का। उन पर आरोप है कि 2008-09 व 2009-10 के राज्य बजट से मायावती ने ऐसी परियोजनाओ ंपर करीब दो हजार करोड़ रुपए खर्च किए हैं। इससे क्षुब्ध होकर ही केन्द्रीय गृह मंत्री ने पूछा है कि क्या इससे शर्मनाक कुछ हो सकता है? जब प्रदेश में साक्षरता दर और मानव विकास सूचकांक की दर सबसे कम है, जब पांच करोड़ नब्बे लाख लोग इस प्रदेश में गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करते हैं, जहां शिशु मृत्यु दर इतनी ज्यादा है, हर ओर गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और अपराध का बोलबाला है, वहां आत्म स्तुति का यह कदम न केवल शर्मनाक है, बल्कि बेहद निंदनीय भी है। शर्म हमको मगर आती नहीं कि तर्ज पर मायावती सरकार और उनके सिपहसालार इस खर्च को सही ठहराने पर तुले हुए हैं। उत्तरप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग के बजट का 90 प्रतिशत मायावती ने इन मूर्तियों के लगवान पर खर्च कर दिया है, ऐसा आरोप है। इसमें 2 हजार करोड़ रुपए अंबेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल के निर्माण पर खर्च होंगे। 370 करोड़ रुपए कांशीराम स्मारक, 90 करोड़ कांशीराम सांस्कृतिक स्थल की लागत है। इसी तरह 90 करोड़ रुपए बुध्द स्थल और 65 करोड़ रमाबाई अंबेडकर मैदान पर खर्च होंगे। मुख्यमंत्री और पार्टी के प्रतीक चिन्ह की मूर्ति लगवाना संविधान के अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन है। यह अच्छा है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस विवादास्पद मामले में राज्य सरकार व मुख्यमंत्री को तुरंत कारण बताओ नोटिस जारी किया है। वर्ना मूर्तियों पर खर्च की यह दीवानगी न जाने कहां जाकर रुकती। मायावती के निकट सहयोगी सतीशचंद्र मिश्र इस कदम को सही ठहराते हुए कहते हैं कि दिल्ली में भी तीन मूर्ति चौराहा है, जिसकी कीमत पांच सौ करोड़ के आसपास है। जबकि राज्य सरकार के वकील का तर्क है कि इस खर्च की अनुमति विधानसभा से पहले ही ली जा चुकी है। दिल्ली में सौंदर्यीकरण किया गया इसलिए उत्तरप्रदेश में भी ऐसा हो, यह कतई जरूरी नहीं है। जहां लोगों के पास दो वक्त का भरपेट भोजन और तमाम मूलभूत सुविधाओं का अभाव है, वहां शहरी सौंदर्यीकरण से वीभत्स कार्य कुछ नहीं हो सकता। और विधानसभा में पहुंचे लोगों के सामाजिक सरोकार क्या रह गए हैं, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है। इसलिए इन दोनों तर्कों में कोई दम नहीं है। दरअसल मायावती सत्ता के मद में इस कदर चूर हो गई हैं कि उन्हें ध्यान ही नहीं रहा कि जनता ने उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया क्यों था। दलित की बेटी होने की भावना अब और वे भुना नहीं सकती। उन्हें अगर यह तथ्य स्थापित करना है कि दलित की मूर्ति लगाने का ध्यान केवल दलित को ही आया तो उन्हें भारत भ्रमण कर देखना चाहिए कि किस तरह हर शहर में संविधान की पुस्तक हाथ में लिए बाबा अंबेडकर की मूर्तियां लगी हुई हैं। जिस संविधान को अपने हाथों में उन्होंने थामे रखा है, उसका अध्ययन भी मायावती को करना चाहिए कि किस तरह उसमें दलितों, वंचितों, शोषितों के कल्याण के रास्ते सुझाए गए हैं। जिस सामंती सत्ता के खिलाफ मोर्चा संभालने के लिए मायावती ने राजनीति में प्रवेश किया था और कांशीराम की उत्तराधिकारी बनने का हक पाया था, आज वे उसी सामंतवाद का हिस्सा बन गई हैं, और उन्हें शायद इसका इल्म भी नहीं है। अगर होता तो अपने मुख्यमंत्रित्व काल का अपव्यय वे सोशल इंजीनियरिंग के दांवपेंच सुलझाने या अपने राजनीतिक विरोधियों से हिसाब चुकता करने में नहीं करती। बल्कि उत्तरप्रदेश की गरीब जनता के उत्थान के लिए, उन्हें 21वीं सदी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए तैयार करती। मायावती के धुर विरोधी मुलायम सिंह यादव ने इन मूर्तियों पर बुलडोजर चलवाने की मंशा प्रकट की है। मूर्तियों का खंडन-मंडन राजनीतिक सुविधा के मुताबिक होता रहेगा। लेकिन अपनी मूर्तियां लगवाकर मायावती ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी तो मारी ही है, बसपा के राजनीतिक भविष्य को भी खतरे में डाल दिया है। 

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