शनिवार, 10 दिसंबर 2011

आप असफलता या नापसंद स्थिति को कैसे लेते हैं ?

हर पल आपके लिये या तो असंतोषजनक, नापसंदीदा  है या संतोषजनक, पसन्दीदा.
क्या हम यह देख सकते हैं?
मन एक बाधित ढंग से प्रतिक्रिया करता है.जैसे ---
आप अपनी असफलता या नापसंद स्थिति को कैसे लेते हैं?
 किसी संतुष्टिपूर्ण विचार से. मन नकार देता है, असफलता और नापसंद स्थिति से समझौता कर लेता है. शिकायत के द्वारा, दूसरों पर दोषारोपण कर, स्वंय को दोषी मानते हुए या भाग्य को कोसते हुए या यह सोचकर कि आने वाले कल में सफलता मिलेगी इत्यादि............
आप अपनी सफलता या पसन्दीदा स्थिति को कैसे लेते हैं?
किसी संतुष्टिपूर्ण विचार से. मन श्रेय लेने के लिये,या दूसरों को श्रेय देने के लिये,
परिश्रम की प्रशंसा करने में, अगामी सफलता की आशा में, ईष्ट का धन्यवाद करने में,
भाग्य या कर्मों का खेल मानने में उछलता है.!यह (देखना) प्रश्न करना कि मन सफलता और असफलता में किसी संतुष्टिपूर्ण विचार में,जाने के लिये बाध्य है, ऊर्जा का पूर्ण केन्द्रित हो जाना है.यह सम्पूर्णता को चलित करने का आमंत्रण है.संसार में विचरने के लिये हर पल कर्म के लिये ही दिया हुआ है. आप नहीं कह सकते के यह पल मुझे पसंद नहीं है. यह एक अडिग पर्वत की तरह है. इसे स्वीकार ना करने का अर्थ यह होगा कि आप इस पर अपना सिर मार रहें हैं कि एसा क्यों है.? क्या इसका अर्थ यह हुआ कि हम कुछ नहीं कर सकतें हैं अगर हमें कुछ पसंद नहीं है?आपकी इच्छा, आपके कर्म अगले पल के लिये हैं न कि इस पल के लिये. वास्तव में इस पल को बिना किसी किन्तु-परन्तु के स्वीकार करने से स्वंय ही ऊर्जा केन्द्रित हो जाती जो कि आपको अगले कर्म के लिये प्रेरित कर देती है.यह स्वीकृति आपको अपने मन की कार्यप्रणाली को एक आइने की तरह दिखा देती है.आप जान लेते हैं कि आपका मन एक बाधित ढंग से कार्य करता है. अब आपको एक नया मार्ग दिखने लगता है.इस पीड़ादायी पल को स्वीकार न करने का अर्थ यह है कि आप एक काल्पनिक लड़ाई लड़ रहें हैं, यह लड़ाई कभी समाप्त नहीं हो सकती कयोंकि न स्वीकार करने का अर्थ है कि इसके लिये कोई और जिम्मेदार है, वास्तव में यह विभाजन है ही नहीं. इस पल को स्वीकार करने, उस एक; जो कि जीवन का मूल है, की तरफ पहला और आखिरी कदम है.परंतु इस पल को बिना दोष लगाये, बिना शिकायत किये, बिना आत्मग्लानि के स्वीकार करना अपने आप में दुखदायी है?
अंतर यह है कि बिना स्वीकार किये, आप दुख के प्रभाव को आशावादी विचारों, मनोरंजन, और यहां तक यह सोच कर कि आने वाला पल अच्छा होगा, नकार देतें हैं.स्वीकार करने में दुख का प्रभाव सम्माहित हो जाता है, रुका हुआ मार्ग खुलने लगता है, आप स्वयं ही एक की तरफ जाने लगते हैं.
क्रोध, भय, चिंता, घृणा, तनाव, दुख, विचार की ऊहापोह जीवन की अभिव्यक्ति है.
इसी तरह सुख, प्रसन्नता, आनंद, विचार की ऊहापोह जीवन की अभिव्यक्ति है.
क्रोध इत्यादि का अर्थ है, जो है उसके साथ अस्वीकृति है.
सुख इत्यादि का अर्थ है, जो है उसके साथ स्वीकृति है.
उदासीनता का अर्थ है. जो है उसकी उपेक्षा.
यह तीनों अवस्थाएं जीवन की अभिव्यक्ति है.
जीवन इन्हीं के द्वारा चलायमान रहता है.
इसलिये जो है (उसके साथ अस्वीकृति, स्वीकृति, उदासीनता ) जीवन की अभिव्यक्ति है.
क्या होना चाहिए का विचार मन को जो है उससे परे कर देता है.
मन इस भ्रम में रहता है कि वो जीवन की अभिव्यक्ति को अपने पक्ष में या वश में कर सकता है या वह किसी अभिव्यक्ति का चुनाव कर सकता है.
ऐसा कोई उपाय नहीं है न ही बच निकलने का कोई रास्ता है.
यह निस्सहायता आपको शून्यता का स्पर्श करा देती है.
आप जीवन का खेल समझने लग जाते हैं.
अस्तित्व का रहस्य उजागर होने लगता है.
हम समझते हैं कि मन के दायरे में अच्छे-बुरे, पवित्र-अपवित्र, नैतिक-अनैतिक में चुनाव करके शांति पा सकते हैं.
द्वंद्व के दायरे में शांति खोजना व्यर्थ है.
लेकिन यह कैसे जाना जाए कि यह खोज व्यर्थ है?
चुनाव करने से मिलने वाली संतुष्टि (आराम) को नकार कर.
इस संतुष्टि को नकारना एक असाधारण घटना है.

किसी चीज़ की तरफ आकर्षित होना प्राकृतिक है और यह मन को कार्य करने के लिये प्रेरित करता है. लेकिन अपनी पसन्द को पसन्द करने के भ्रम के ऊपर मन उलझा रहता है.क्या आप इस दूसरी पसन्द से मुक्त हो सकते हैं?
क्या आप दूसरी पसन्द को देख सकतें हैं?
इस दूसरी पसन्द का आपके ध्यान में आना एक असामान्य घटना है.
सत्य को जानना सभी प्रयत्नों का अंत है.
यह ऊर्जा का केन्द्रित हो जाना है.
आप जीवन की अनंत धारा से एक हो जाते हैं.
अस्तित्व का रहस्य उजागर होने लगता है............
नोट --लेख अभी पूर्र्ण नहीं है ,............

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